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________________ चत्तारि-अठ्ठ-दस-दोय, वंदिया जिरणवरा चउव्वीसं । परमट्ठ-निट्ठि अट्ठा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ [सिद्धस्तव, गाथा-५] अर्थ-चार, पाठ, दस और दो इस प्रकार वन्दित चौबीस तीर्थंकर-जिनेश्वर तथा जिन्होंने परमार्थ को सिद्ध किया है, ऐसे सिद्ध भगवन्त मुझे सिद्धपद (मोक्षपद) प्रदान करें। इस विषय में नियुक्तिकार महर्षि श्रुतकेवली पूज्य आचार्य भगवान श्री भद्रबाहु स्वामी महाराज ने कहा है कि प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी के प्रथम पुत्र चक्रवर्ती श्री भरत महाराजा ने श्री अष्टापद पर्वत पर जिनमन्दिर बनवाकर, उसमें श्री ऋषभदेव भगवान से लगाकर यावत् अन्तिम श्री महावीर भगवान पर्यन्त चौबीसों तीर्थंकर परमात्माओं की मूत्ति-प्रतिमाएँ ठोक वैसे ही आकार की स्थापित की हैं। अर्थात्-चारों दिशाओं में क्रम से चार, पाठ, दस और दो इस तरह चौबीस तीर्थंकरों के भव्य बिम्ब चक्रवर्ती श्री भरत महाराजा ने श्री अष्टापद पर्वत पर स्थापित किये हैं। मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता--२४४
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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