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________________ नेत्रानन्दकरी भवोदधितरी श्रेयस्तरोमञ्जरी, श्रीमद्धर्ममहानरेन्द्रनगरी व्यापल्लताधूमरी । हर्षोत्कर्षशुभप्रभावलहरी रागद्विषां जित्वरी , मूत्ति श्रीजिनपुङ्गवस्य भवतु श्रेयस्करी देहिनाम् ॥ १५ ॥ भावार्थ-श्री जिनेश्वरदेव की मूत्ति भक्तजनों के नेत्र-नयनों को आनन्द पहुँचाने वाली है, संसार रूपी सिन्धु-सागर को पार करने के लिए नौका-नाव के समान है, श्रेय-कल्याण रूपी वृक्ष की मंजरी जैसी है, धर्म रूप महानरेन्द्र की नगरी सदश है, अनेक प्रकार की आपत्ति रूपी बेलड़ी-लताओं का विध्वंस-विनाश करने के लिये धूमरी-धूमस के सदृश है, हर्ष-प्रानन्द के उत्कर्ष के शुभ प्रभाव का विस्तार करने में लहरों का काम करने वाली है और राग तथा द्वष रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कराने वाली है। ऐसी श्री जिनेश्वरदेव की मूत्ति-प्रतिमा विश्व के जीवों का कल्याण करने वाली बने ! कि पीयूषमयी कृपारसमयी कर्पूधारीमयी , किं वाऽऽनन्दमयी महोदयमयी सद्ध्यानलीलामयी । तत्त्वज्ञानमयी सुदर्शनमयी निस्तन्द्र-चन्द्रप्रभा , सारस्कारमयी पुनातु सततं मूर्तिस्त्वदीया सताम् ॥१७॥ मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२३२
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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