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भावार्थ-हे प्रभो! आपकी मूर्ति क्या अमृतमय है ! क्या कृपा-दया रसमयी है ! क्या आनन्दमयी है ! क्या महोदयमयी है ! क्या उत्तम ध्यान की लीलामयी है ! क्या तत्त्वज्ञानीमयी है ! क्या दर्शनमयी है ! या क्या उज्ज्वल चन्द्रप्रभा के उद्योत रूप है ! इस प्रकार को आपकी मूत्ति-प्रतिमा सज्जनों को सदा पवित्र करती रहे ।। १७ ॥ धन्या दृष्टिरियं यया विमलया दृष्टो भवान् प्रत्यहं , धन्याऽसौ रसना यथा स्तुतिपथं नीतो जगद्वत्सलः । धन्यं कर्णयुगं वचोऽमृतरसो पोतो मुदा येन ते , धन्यं हृत् सततं च येन विशदस्त्वन्नाममन्त्रो धृतः ॥ १८ ॥
भावार्थ-उस दृष्टि को धन्य है, जिस निर्मल दृष्टि ने हमेशा आपके दर्शन किये। वह रसना (जीभ) भी धन्य है, जिसने विश्ववात्सल्य परमात्मा का स्तवन किया है। वह कर्ण (कान) भी धन्य है, जिसने आपके वचनाऽमृत का रस अानन्द से ग्रहण किया । उस हृदय को भी धन्य है, जिसने आपके नाम रूपी निर्मल मन्त्र को सदा धारण किया है ।। १८ ।। चित्रं चेतसि वर्ततेऽद्भुतमिदं व्यापल्लताहारिणी , मूत्ति स्फत्तिमतिमतीव विमलां नित्यं मनोहारिणी । विख्यातां स्नपयन्त एव मनुजाः शुद्धोदकेन स्वयं , संख्यातीततमो मलायन यतो नैर्मल्यमाप्तिभ्राति ॥१६॥
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२३३