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मूर्ति प्रतिमा, जिसकी देवताओं ने मन्दारवृक्ष के पुष्पों से पूजा की है अर्थात् पूजी है और जो उग्र रोग-व्याधि को शोषण करने वाले ऐसे स्नात्रजल रूपी सुधा-अमृत के झरने से सारे विश्व की रक्षा करती है; ऐसी आपकी मूर्ति प्रतिमा को हम परमानन्द प्रर्थात् मोक्ष प्राप्त करने के लिये वन्दन-नमस्कार करते हैं ।। १३ ।।
[ ये तीन से तेरह तक के श्लोक न्यायविशारद - न्यायाचार्य - महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज विरचित 'श्री प्रतिमाशतक' नाम के ग्रन्थ में से उद्धृत किए गए हैं ।]
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पापं लुम्पति दुर्गंत दलयति व्यापादयत्यापदं पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम् । सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीति प्रसूते यशः स्वर्गं यच्छति निर्वृति च रचयत्यच प्रभोर्भावतः ॥ १४॥ भावार्थ - प्रभु को (मूर्ति) पूजा भाव से पाप को काट गिराती है, दुर्गति को दलती अर्थात् विनाश करती है, आपत्ति को मार भगाती है, पुण्य का संचय - संग्रह करती है, लक्ष्मी को बढ़ाती है, नीरोगता को पुष्ट करती है, सौभाग्य को उत्पन्न करती है, स्वर्ग देती है और निर्वृति यानी मोक्ष की रचना करती है ॥ १४ ॥
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - २३१