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आनन्दघन में त्रिकाल उत्पन्न होने वाले सुख की तुलना में समस्त ओर से एकत्र सुर-असुर का सुख अनन्तवें भाग भी नहीं है ।। ११ ॥ स्वान्तं शुष्यति दह्यते च नयनं भस्मीभवत्याननं , दृष्ट्वा तत् प्रतिमामपीह कुधियामित्याप्तलुप्तात्मनाम् । अस्माकं त्वनिमेषविस्मितदृशां रागादिमां पश्यतां , सान्द्रानन्दसुधानिमज्जनसुखं व्यक्तीभवत्यन्वहम् ॥१२॥
भावार्थ-जिनकी आत्मा खण्डित हुई है ऐसे दुर्बुद्धियों का हृदय इस मूत्ति को देखकर सूख जाता है, नेत्र जल उठते हैं तथा मुख भस्मीभूत हो जाता है; जबकि राग-प्रेम से इस मूति-प्रतिमा को अनिमेष दृष्टि से देखते हुए हमको तो आनन्दघन रूपी अमृत में डूबने का सुख सर्वदा प्रगट होता है ।। १२ ।।
मन्दारद्रुमचारुपुष्पनिकरैर्वृन्दारकैरचितां , सवृन्दाभिनतस्य निर्वृतिलताकन्दायमानस्य ते । निस्यन्दात् रुपनामृतस्य जगती पान्तीममन्दामयावस्कन्दात् प्रतिमां जिनेन्द्र ! परमानन्दाय वन्दामहे ॥१३॥
भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! सत्पुरुषों के द्वारा नमस्कृत तथा मुक्ति रूपी लता के कन्द सदृश ऐसी आपकी
मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-२३०