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किं ब्रह्म कमयी किसुत्सवमयी श्रेयोमयी कि किमु, ज्ञानानंदमयी किमुन्नतिमयी किं सर्वशोभामयी। इत्थं कि किमिति प्रकल्पनपरस्त्वन्मूत्तिरुद्धोक्षिता, किं सर्वातिगमेव दर्शयति सद्ध्यानप्रसादान महः ॥१०॥
भावार्थ-क्या यह मूति-प्रतिमा ब्रह्ममय है ? क्या यह मूत्ति-प्रतिमा उत्सवमय है ? क्या यह मूति-प्रतिमा कल्याणमय है ? क्या यह मूत्ति-प्रतिमा उन्नतिमय है ? या क्या यह मूत्ति-प्रतिमा शोभामय है ? इस प्रकार की कल्पना करते हुए कवियों के द्वारा देखी हुई आपकी मूत्तिप्रतिमा उत्तम ध्यान के प्रसाद से सबका उल्लंघन करने वाली ज्ञान रूपी प्रभा-तेज को बताती है ।। १० ।।
त्वद्रूपं परिवर्त्ततां हृदि मम ज्योतिःस्वरूपं प्रभो ! तावद् यावदरूपमुत्तमपदं निष्पापमाविर्भवेत् । यत्रानन्दघने सुरासुरसुखं संपीडितं सर्वतो, भागेऽनन्तमेऽपि नैति घटनां कालत्रयोसम्भवि ॥११॥
भावार्थ-हे प्रभो ! पापविनाशक, उत्तम पदस्वरूप और रूपरहित ऐसा जो अप्रतिपाती ध्यान जहाँ तक प्रकट नहीं होगा वहाँ तक मेरे अन्तःकरण में आपका रूप अनेक प्रकार से ज्ञेयाकार रूप से परिणाम को प्राप्त हो ।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२२६