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भावार्थ-हे समस्त दुःख-रहित प्रभो ! हे. नित्य आनन्दमय नाथ ! आपकी मूति-प्रतिमा को देखकर मैं अपने अन्तःकरण में विश्वास रखकर अव्यय एवं अविनाशी आनन्द को प्राप्त हुआ हूँ। हे नर-हितकारी प्रभो ! आपकी यह मूत्ति अभयदान सहित एवं उपाधि रहित वृद्धिगत गुणस्थानक के योग्य दया का पोषण करती है ।। ८ ॥
त्वद् बिम्बे विधृते हृदि स्फुरति न प्रागेव रूपान्तरं, त्वद्रूपे तु ततः स्मृते भुवि भवेन्नो रूपमात्रप्रथा । तस्मात् त्वन्मदभेदबुद्ध्युदयतो नो युष्मदस्मत्पदोल्लेखः किचिदगोचरं तुलसति ज्योतिः परं चिन्मयम् ॥ ६ ॥
____ भावार्थ-हे प्रभो ! आपके बिम्ब को हमारे हृदय में धारण करने के बाद अन्य कोई रूप हृदय में स्फुरायमान नहीं होता है और आपके रूप का स्मरण होते ही पृथ्वी पर दूसरे किसी रूप की प्रसिद्धि भी नहीं होती है । इसके लिए, 'तू वही मैं' इस प्रकार की अभेद बुद्धि के उदय से 'युष्मद् और अस्मद्' पद का उल्लेख भी नहीं होता और कोई अगोचर परम चैतन्यमय ज्योति अन्तर में स्फुरायमान होती है ।। ६ ।।
मूति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२२८