________________
नहीं छोड़ती है तथा इन्द्र चन्दन वृक्षों से सुन्दर ऐसी नन्दनवन की भूमि को नहीं छोड़ता है; वैसे ही मैं प्रभु की मनि-प्रतिमा को अपने अन्तःकरण-हृदय से क्षण भर भी दर नहीं करता हूँ ।। ६ ।।
मोहोद्दामदवानलप्रशमने पायोदवृष्टिः शमस्रोतानिर्भरिणी समीहितविधौ कल्पद्रुवल्लिः सताम् । संसारप्रबलान्धकारमथने मार्तण्डचण्डद्युतिजैनीमूतिरुपास्यतां शिवसुखे भव्याः पिपासास्ति चेत् ॥७॥
भावार्थ-डे भव्यजनो ! जो तुम्हें मोक्ष का सुख प्राप्त करने की अभिलाषा हो तो तुम श्री जिनेश्वरदेव की मनि-प्रतिमा की उपासना करो। जो जिनमुत्ति मोह रूपी दावानल को शान्त करने में मेघवृष्टि के समान है सतपुरुषों को वांछित देने में कल्पवृक्ष की लता के तुल्य है और संसार रूपी प्रगाढ़ अन्धकार का विनाश करने में मार्तण्ड यानी सूर्य की तीव्र प्रभा रूप है ।। ७ ।।
दर्श दर्शमवापमव्ययमुदं विद्योत्तमाना लसद्विश्वासं प्रतिमामकेन रहित ! स्वां ते सदानन्द ! याम् ! सा धत्ते स्वरसप्रसृत्वरगुणस्थानोचितामानमद्विश्वा सम्प्रति मामके नरहित ! स्वान्ते सदानं दयाम् ॥८॥
मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-२२७