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स्वान्तं ध्वान्तमयं मुखं विषमयं दृग् धूमधारामयी., तेषां यैर्न नता स्तुता न भगवन् मूत्तिर्न वा प्रेक्षिता । देवश्चारणपुङ्गवैः सहृदयैरानन्दितैर्वन्दिता , ये त्वेनां समुपासते कृतधियस्तेषां पवित्रं जनुः ॥ ५ ॥
__भावार्थ-जिन्होंने प्रभु की मूत्ति-प्रतिमा को नमस्कार नहीं किया, उनका अन्तःकरण अन्धकारमय है, जिन्होंने उनकी स्तुति नहीं की, उनका मुख विषमय है तथा जिन्होंने उनका दर्शन नहीं किया, उनकी दृष्टि धुएँ से व्याप्त है। देवों द्वारा, चारण मुनि और तत्त्ववेत्ताओं द्वारा आनन्द से वन्दना की हुई इस मूत्ति-प्रतिमा की जो उपासना करते हैं, उनकी बुद्धि कृतार्थ है। इतना ही नहीं किन्तु उनका जन्म भी पवित्र है ।। ५ ।।
उत्फुल्लामिव मालती मधुकरो रेवामिवेभः प्रियां, माकन्दद्रुममञ्जरीमिव पिकः सौन्दर्यभाजं मघौ । नन्दच्चन्दनचारुनन्दनवनीभूमिव द्योः पतिस्तीर्थेशप्रतिमां न हि क्षणमपि स्वान्ताद्धिमुञ्चाम्यहम् ॥६॥
भावार्थ-जैसे भ्रमर प्रफुल्लित मालती को नहीं छोड़ता है, हाथी मनोहर रेवा नदी को नहीं छोड़ता है, कोयल वसन्त ऋतु में उत्तम आम्रतरु की डाली को
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२२६