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भावार्थ-इन्द्रों की श्रेणी द्वारा नमस्कृत, प्रताप के गृहरूप, भव्य प्राणियों के नेत्रों को अमृत रूप, सिद्धान्त के रहस्य का विचार करने में चतुर पुरुषों द्वारा प्रीति से प्रमाणभूत की हुई और स्फुरायमान ऐसी श्री जिनेश्वर भगवन्त की 'मूत्ति-प्रतिमा' सदा विजय प्राप्त करती है, कि जो मत्ति-प्रतिमा विविध परिणाम वाले मोह के उन्माद और प्रमाद रूपी मदिरा से उन्मत्त बने हुए ऐसे कुमतिपुरुषों की दृष्टि में अर्थात् देखने में नहीं आती है ।। ३ ।।
नामादित्रयमेव भावभगवत्तादप्यधीकारणं, शास्त्रात् स्वानुभवाच्च शुद्धहृदयै रिष्टं च दृष्टं मुहुः । तेनाहत्प्रतिमामनास्तवतां भावं पुरस्कुर्वता
मन्धानामिव दर्पणे निजमुखालोकार्थिनां का मतिः॥४॥ - भावार्थ-नामादि तीनों निक्षेप प्रभु के तद्रूपपने की बुद्धि के कारण हैं तथा उनको शुद्ध हृदय वाले ऐसे गीतार्थ महापुरुषों ने शास्त्र से और अपने अनुभव से स्वीकार किया है, एवं पुनःपुनः उनका अनुभव किया है । इससे अरिहन्त परमात्मा की मूत्ति-प्रतिमा का अनादर करके मात्र भाव अरिहन्त को जो मानने वाले हैं, उनकी बुद्धि दर्पण में मुख देखने वाले अन्ध पुरुषों की भाँति कुत्सित एवं दोषयुक्त है ।। ४ ।।
मूत्ति-१५ . मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२२५