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बाह्य अभ्यन्तर तप उजमाल, ते मुनि वंदूँ गुणमणिमाल । नित-नित उठी कोत्ति करूँ, जीव कहे भवसायर
तरू ।। १५ ।।
भावार्थ - यह सूत्र भाषा में है और स्पष्ट भी है इसलिये इसका भावार्थ कहते हैं- रात्रिक प्रतिक्रमण करने वाला हाथ जोड़ कर तीर्थवन्दना करता है । पहले वह शाश्वत जिनबिम्बों की और पीछे वर्त्तमान के कुछ तीर्थों, विहरमान और सिद्ध तथा साधु को वन्दन करता है ।
ऊर्ध्वलोक में बारह देवलोक, नव ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमान में ८४९७०२३ जिनभवन हैं । केवल बारह देवलोक तक में ८४९६७०० जिनभवन हैं । प्रत्येक देवलोक में जिनभवनों की संख्या गाथा में स्पष्ट है । बारह देवलोक के प्रत्येक जिनचैत्य में एक सौ अस्सी - एक सौ अस्सी जिनबिम्ब हैं । नव ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमान के ३२३ में से प्रत्येक जिनचैत्य में एक सौ बीस-एक सौ बीस जिनबिम्ब हैं । ऊर्ध्वलोक के जिनबिम्ब सब मिलाकर १५२६४४४७६० होते हैं ।
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - २२२