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सौ वरस उपवास पुण्य, प्रदक्षिणा देतां । सहस वर्ष उपवास पुण्य, जिन नजरे जोतां ॥७॥ भावे जिनवर जुहारिये, फल होवे अनन्त । तेहथी लहिए सौगणु, जो पूजे भगवन्त ॥ ८ ॥ फल घणु फुलनी माल, प्रभु कण्ठे ठवतां । पार न आवे गीतनाद, केरां फल थुगतां ॥ ६ ॥ शिर पूजी पूजा करो, दीपे धूपणु धूप । अक्षतसार ते अक्षयसुख, तनु करे वररूप ॥१०॥ निर्मल तन मने करी, थुणतां इन्द्र जगदीश । नाटक भावना भावतां, पामे पदवी ईश ॥ ११॥ जिनवर तणी भक्ति भली ए, वली प्रेमे प्रकाशी। सुणी श्री गुरुवयणसार, पूर्व ऋषि ए भाषी ॥ १२ ॥ अष्टकर्मने टालवां, जिनमन्दिर जईशु। भेटी चरण भगवन्तनां, ह निर्मल थईशु ॥ १३ ॥ कोत्तिविजय उवझायनो ए, विनय कहे करजोड़। सफल होजो मुज विनति, जिन सेवाना कोड़ ॥ १४ ॥
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मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१८७