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नव तत्त्व सर्व सुभेद भाख्यो, यति श्रावक धर्म ही , भक्ति दान शील सुभाव तपनिधि, षट् आवश्यक कर्म ही। सब तार भवजल पार पायो, सुविधिनाथ जिनेश्वरं , सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ॥६॥
सित चन्दन जिम शीतल जिनप्रभु, करे शीतल दर्श तें , ए भव दावानल मेट देवे, बानी वर्षा वर्ष तें। श्री मोक्ष मारग भव्य पावे, शीतलनाथ जिनेश्वरं, सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ।१०।
प्रभु तीन छत्र विराजमान, देव-दुन्दुभि वाजितं ,. शुभ मान-थम्भं धर्मचक्र, पुष्पवृष्टि सुगाजितम् । अशोकवृक्ष सुछाय शीतल, श्रेयांसनाथ जिनेश्वरं , सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ।११।
शुभ स्वर्ण आसन मन विकासन, जोति लख रवि लाज ही, सित चमर चौंसठ सीस ढारे, सुर सुभक्ति सुसाज ही। नित करो पूजा वासवं प्रभु, वासुपूज्य जिनेश्वरं , सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ।१२।
जे विमल मनसा करी आराधे, विमल अक्षत पूजहीं , धरि गन्ध धूप नैवेद्य दीपक, करें प्रारति कूजहीं । मन वच काया शुद्ध करि प्रभु, विमलनाथ जिनेश्वरं , सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ।१३।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१८२