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उपदेश दे जग भव्य तारे, देव नर बहु पशु घने , मेटके मिथ्यात धर्म, जैन वानी धरम ने । दम दया दान दयाल भाख्यो, अभिनन्दन जिनेश्वरं , सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ॥४॥
शुभ विमल वाणी जगत मानी, जीव सब संशयहरं, पशु देव असुर पुरुष नारी, वन्दना चरनन-करम् । अमल परम सरूप सुन्दर, सुमतिनाथ जिनेश्वरं, सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ॥५॥
सब राज ऋद्धि त्याग जिनजी, दान दे एक वर्ष ही , अठ कर्म जीते धार दीक्षा, भयो सुर नर हर्ष ही। जय जय करत सब इन्द्र मिल के, पद्मप्रभ श्री जिनेश्वरं, सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ॥६॥
सब हरण दारिद जगत-स्वामी, भयो नामी जगत ही , रवि शेष और नरेश पूजे, इन्द्रलोक सुभक्ति ही। सब भाव शुद्धे धार विनवे, सुपार्श्वनाथ जिनेश्वरं , सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ॥७॥
सुशशाङ्क कर सम विमल विशदं, निष्कलङ्क शरीर ही , गिरि मेरु सम नित अचलस्वामी, उदधि सम गम्भीर ही । बिन शरण के है शरण जगगुरु, चन्द्रप्रभ श्री जिनेश्वरं , सब भविक जन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरम् ॥८॥
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मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-१८१