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* श्री पद्मप्रभ भगवाननी स्तुति
जेना पावे सुरनरतणा यूथ प्रावी नमे छे, ने श्रज्ञाने सतत शिरसावंद्य तेस्रो करे छे । ने पोताना हृदयघटमां ध्यान जेनं धरे छे, एवा पद्मप्रभ प्रभुतरणा पादपद्मो गमे छे ॥ ६ ॥
* श्री सुपार्श्वनाथ भगवाननी स्तुति जीत्या जेणे हृदय वसता द्वेष- रागादि चारे, टाल्या जेणे जनम-मरणो दुःखथी मिश्र भारे । पाम्या ते तो परमपदमां शाश्वतानंद सारा, मोहे ते तो मुज हृदयमां श्री सुपार्श्वेश सारा ॥ ७ ॥
* श्री चन्द्रप्रभ भगवाननी स्तुति
जे ज्योत्स्ना रविशशितणा तेजने भांख दे छे, ने भव्योना प्रघतिमिरने सर्वथा संहरे छे । जेमां छोलो सतत उछले श्रेष्ठ ज्ञानाब्धिनी ए, एवी चन्द्रप्रभ प्रभुतरणी चांदनीमांज न्हाए ॥ ८ ॥
* श्री सुविधिनाथ भगवाननी स्तुति
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नेत्रो सारा कमल सरिखा निर्विकारी सदा ए मुद्राधारी कर युगल या शस्त्र शूना जणा ए । खोलो स्त्रीथी रहित चररणो पद्म जेवा मनाए, एवी सारी सुविधि विभुनी मूर्ति पूजुं सदा ए ॥ ६ ॥
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - १७५