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वाडी चंपो मोरियो, सोवन पांखड़िये । पास जिनेश्वर पूजिए, पाँचे अंगुलिये ॥ ६ ॥ त्रिभुवन नायक तू धणी, महा मोटो महाराज । महा पुण्ये पामिया, तुम-दर्शन मैं आज ॥ ७ ॥ आज मनोरथ सवि फले, प्रगटे पुण्य कलोल। पाप कर्म दूरे टले, नाठे दुःख डंडोल ॥८॥ पंचम काले पामयो, दुर्लभ तुझ देदार । तो पण तेरा नाम का, है महा आधार ॥ ६ ॥ जो दृष्टि प्रभुदर्शन करे, उस दृष्टि को भी धन्य है। जो जीभ जिनवर को स्तवे, वह जीभ भी नित धन्य है। पीए मुदा वाणी सुधा, उस कर्ण-युग को धन्य है। तुम नाम मन्त्र पवित्र धारे, हृदय भी वे धन्य हैं ॥ १० ॥ माया दादा के दरबार, कर भवोदधि पार । मेरे तू ही प्राधार, मुझे तार ! तार ! तार ! ॥ तेरी मूत्ति मनोहार, हरे मन का विकार । तू है हैया का हार, वन्दं बार ! बार ! बार ! ॥ ११ ॥
. मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१६३