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प्रादित्याद्याः भ्रमन्त्येते, यं नमस्कर्त्तुमुद्यताः । कालो दिवसरात्रिभ्यो, यस्य सेवाविधायकः ॥ २६ ॥
अर्थ- हे देवि ! ये सूर्य इत्यादि [ सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु ] नौ ग्रहदेवता प्रभु को नमस्कार करने को उद्यत हुए हैं तथा प्रभु के परितः अर्थात् चारों तरफ भ्रमरण - प्रदक्षिणा करते हैं एवं स्वयं कालदेव भी दिन-रात अर्थात् दिवस और रात्रि के विभाग से इन सर्वज्ञ [ जिनेश्वर ] देव की सेवा करते हैं ।। २६ ।।
वर्षाकालोष्णकालादि, शीतकालादि वेशभृत् । यत् पूजार्थं कृता धात्रा, आकाराः मलयादयः ।। २७ ।।
अर्थ - तथा यही काल वर्षा, गर्मी और शीत के रूप को धारण कर भगवान की सेवा करता है और कुदरत ने इन्हीं सर्वज्ञ [ जिनेन्द्र ] देव की अर्चना-पूजा के लिये मलयाचल इत्यादि पर्वत बनाए हैं । अर्थात् मलयाचलादि के सर्वोत्तम पदार्थों से अर्चना-पूजा करने लायक यही सर्वज्ञदेव हैं ।। २७ ।।
काश्मीरे कुङ्कुमं देवि ! यत् पूजार्थं विनिर्मितम् । रोहणे सर्वरत्नानि यद्भूषणकृते
व्यधात् ॥ २८ ॥
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - १४९