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हुए भी अनेक रूपों को धारण करते हुए सुरेश्वर के समान हैं ।। २२ ।।
जगत् त्रयाधिपत्यस्य हेतुश्छत्रत्रयं प्रभोः । अमी च द्वादशाऽऽदित्याः, जाताः भामण्डलं प्रभोः ॥ २३ ॥
अर्थ - हे देवि ! प्रभु सर्वज्ञ - जिनेश्वर के ऊपर ये तीनों छत्र त्रिलोक (स्वर्ग- मृत्यु- पाताल) के प्रभुत्व- मुख्यरूप चिह्न हैं तथा बारहों सूर्य स्वयं प्राकर भगवान के भामण्डल में प्रकाश कर रहे हैं ।। २३ ।।
पृष्टलग्ना श्रमी देवाः, याचन्ते मोक्षमुत्तमम् । एवं सर्वगुणोपेतः, सर्वसिद्धिप्रदायकः ।। २४॥ एष एव महादेवि ! सर्वदेवः नमस्कृतः । गोप्याद् गोप्यतरः श्रेष्ठो, व्यक्ता व्यक्ततया स्थितः ।। २५ ।।
अर्थ- हे महादेवि ! प्रभु के पृष्ठ भाग में खड़ े हुए ये देव प्रभु से श्रेष्ठ उत्तम मोक्ष की याचना करते हैं तथा इस तरह सर्वगुणों से सहित और समस्त सिद्धियों को देने वाले एवं सर्वदेवों से नमस्कार किये हुए प्रतिगोपनीय सर्वश्रेष्ठ तथा व्यक्त यानी प्रगट और अव्यक्त यानी अप्रगट रूप से स्थित एक यही सर्वज्ञदेव [ जिनेश्वरदेव ] विश्व के आधार रूप हैं ।। २४-२५ ।।
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - १४८