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हुहु तुबरु-नामानौ, तौ वीणावंशवादको । अनन्त-गुण-संघातं, गायतो जगतां प्रभोः ॥ २० ॥
अर्थ-हे देवि ! ये हह और तुम्बरु नाम के दोनों गन्धर्व जाति के देवता लक्ष्मी-समधिष्ठित स्वस्थान की जिस तरह प्रभु से याचना करते हैं, उसी तरह अनन्त सुख के कारणभूत अक्षय मोक्षपद को चाहते हुए वीणा और बाँसुरी को बजाने वाले ये हूहू और तुम्बरु विश्व के स्वामी ऐसे सर्वज्ञ (जिनेश्वर) देव के अनन्त गुणों के समूह को गाते हैं ।। १६-२०
वाद्यमेकोनपञ्चाशद्, भेदभिन्नमनेकधा ।
चतुर्विधा अमी देवाः, वादयन्ति स्वभक्तितः ॥ २१ ॥ . अर्थ-हे देवि ! ये चार प्रकार (निकाय) के देव अपनी भक्ति से उनपचास (४६) तरह के वाजिन्त्रों को अनेक प्रकार से बजाते हैं ।। २१ ।।
सोऽयं देवो महादेवि ! , दैत्यारिः शङ्खवादकः। नानारूपाणि विभ्राण, एकैकोऽपि सुरेश्वरः ॥ २२ ॥
अर्थ-हे महादेवि ! ये जो शंख बजाने वाले हैं वे दैत्यों को शिक्षा करने वाले देव हैं। ये एक होते
• मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-१४७