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धारण करने वाले हैं, इनमें एक तो साक्षात् कल्पवृक्ष है और दूसरा वसन्त ऋतुराज है । अर्थात् इन दोनों नाम के देवता सर्वज्ञदेव (जिनेश्वरदेव ) को पुष्पमाला यानी फूलों की माला समर्पित कर रहे हैं ।। १६ ।।
श्रन्येऽपि ऋतुराजा ये, तेऽपि मालाधराः प्रभोः । भ्रष्टेन्द्र गजमारूढाः, कराग्रे कुम्भधारिणः ॥ १७ ॥ स्नात्रं कर्तुं समायाताः सर्वसंतापनाशनम् । कर्पूर- कुंकुमादीनां धारयन्तो जलं बहु ॥ १८ ॥
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अर्थ-रिक्त अन्यान्य ऋतुएँ भी प्रभु ( सर्वज्ञ जिनेश्वरदेव ) की सेवा में पुष्पमालाएँ लेकर खड़ी हैं तथा ये अन्य अन्य देवता इन्द्र से त्यागे हुए ऐरावत हाथी पर चढ़कर अपने हाथों में जल से भरे कुंभ लेकर कर्पूर- केसर इत्यादि से सुवासित अपरिमित जल को धारण करके सर्वज्ञ ( जिनेश्वर ) देव के पास समस्त सन्तापों का विनाश करने वाले ऐसे स्नात्र समारम्भ को करने के लिए आये हैं । [वे सर्वज्ञविभु- जिनेन्द्रदेव का स्नात्र कर अपने कर्ममल को धो डालते हैं ।] ।। १७-१८ ।।
यथा लक्ष्मीसमाक्रान्तं, याचमानौ निजं पदम् । तथा मुक्तिपदं कान्त-मनन्त - सुखकारणम् ॥ १६ ॥
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - १४६