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रोहणाचल आदि
अर्थ - हे देवि ! विधाता ने भगवान सर्वज्ञ [ जिनेश्वर ] की अर्चना पूजा के लिये काश्मीर देश में केसर बनाई तथा आभूषण पूजा के लिये पर्वतों - पहाड़ों में रत्न उत्पन्न किये हैं सिद्ध होता है कि सर्वज्ञदेव केशर तथा पूजा करने योग्य है ।। २८ ।।
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अर्थात् इससे यह
रत्नों से अर्चना
रत्नाकरोऽपि रत्नानि यत् पूजार्थञ्च धारयेत् । तारकाः कुसुमायन्ते भ्रमन्तो यस्य सर्वतः ॥ २६ ॥
अर्थ - हे देवि ! सर्वज्ञ [ जिनेन्द्र ] भगवान की पूजा के लिये रत्नाकर यानी समुद्र भी रत्नों को धारण करता है तथा आकाश में चमकते हुए ये तारे भगवान के चारों तरफ भ्रमण करते हुए पुष्पों-फूलों के समान दिखते हैं ।। २६ ।।
एवं सामर्थ्यमस्यैव, नाऽपरस्य प्रकीर्तितम् । अनेन सर्वकार्याणि सिद्धयन्ती व्यवधारय ॥ ३० ॥
अर्थ - हे देवि ! इस प्रकार यह अलौकिक सामर्थ्य सिर्फ सर्वज्ञ [जिनेश्वर ] देव का ही है अन्य किसी का नहीं । अतः इन्हीं सर्वज्ञ प्रभु के द्वारा समस्त कार्य सिद्ध होते हैं ।। ३० ।।
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - १५०