________________
लिङ्गरूपेण यस्तत्र, पुंरूपेणाऽत्र वर्त्तते । राग-द्वेषव्यतिक्रान्तः, स एषः परमेश्वरः ॥ ११ ॥
अर्थ - हे देवि ! जो सर्वज्ञ उस ( पर ) लोक में तो लिङ्ग ( घनप्रदेश ) और इस ( मनुष्य ) लोक में पुरुष रूप से बिराजते हैं । वे राग और द्वेष से रहित सर्वज्ञ साक्षात् परमेश्वर हैं ।। ११ ।।
।
आदिशक्ति जिनेन्द्रस्य, ग्रासने गर्भसंस्थिता । सहजा कुलजा ध्याने, पद्महस्ता वरप्रदा ।। १२ ।।
अर्थ- हे देवि ! श्री सर्वज्ञदेव (जिनेन्द्रदेव ) के गंभारा में बैठी हुई अधिष्ठायकदेव की प्रादिशक्ति है । यह ध्यान में स्वाभाविक बुद्धि वाली सुलक्षण समलंकृत हाथों में कमल धारण करने वाली और भक्तजनों को श्रेष्ठ वर देने वाली ऐसी शासन अधिष्ठायिका देवी है ।। १२ ।।
धर्मचक्रमिदं देवि !, धर्ममार्ग प्रवर्त्तकम् । सत्त्वं नाम मृगस्सोऽयं, मृगी च करुरणा मता ॥ १३ ॥
अर्थ- हे देवि ! उनके समीप यह जो चक्र है वह धर्ममार्ग में मनुष्यों की प्रवृत्ति कराने वाला 'धर्मचक्र' है तथा यह मृग स्वयं सत्त्व है और यह जो मृगी
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - १४४