________________
अर्थ-इस मन्दिर में तैंतीस करोड़ देवताओं से समाराधित, सर्व शक्तिमान् साक्षात् प्रत्यक्ष भगवान् जगदीश्वर ऐसे सर्वज्ञदेव (जिनेश्वरदेव) की मूर्ति प्रतिष्ठापित है, देवताओं के अधिपति ऐसे इन्द्र वगैरह भी इसकी सेवा करते हैं ।। ८ ।।
इन्द्रियैर्न जितो नित्यं, केवलज्ञाननिर्मलः ।। पारङ्गतो भवाम्भोधेर्यो लोकान्ते वसत्यलम् ॥ ६ ॥
अर्थ-ये सर्वज्ञदेव सर्वदा इन्द्रियों को जीतने वाले तथा केवलज्ञान से नित्य निर्मल सम्पन्न हैं। ये अपने अलौकिक सामर्थ्य से भवसिन्धु-संसारसागर को पार करके लोकान्त में (मोक्षस्थान में) बसने वाले हैं। इतना होते हुए भी जन-कल्याणार्थ इस भूमण्डल के बीच में मूतिमान् सदैव बिराजमान रहते हैं ।। ६ ।।
अनन्तरूपो यस्तत्र, कषायैः परिवजितः । यस्य चित्ते कृतस्थाना, दोषा अष्टादशाऽपि न ॥ १० ॥
अर्थ-हे देवि ! ये सर्वज्ञ भगवान् अनन्तरूपों वाले हैं तथा सर्व कषायों से रहित हैं। इनके अन्तःकरण में अठारह दोषों में से एक भी दोषस्थान किया हुआ नहीं है अर्थात् ये अष्टादश दोषों से रहित हैं ॥ १० ॥
.
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१४३