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________________ चाहिये । कारण कि विशुद्ध स्थापना की हुई मूत्ति प्रतिष्ठातापूजक-पुरुष को दीर्घायु और बड़ा प्रतापी बनाती है। इस कथन से भी ईश्वर की साकारता और मूर्तिपूजा सिद्ध होती है। (११) “यदा देवतायतनानि कम्पन्ते देवताः प्रतिमा - हसन्ति रुदन्ति नृत्यन्ति स्फुटन्ति खिद्यन्ति उन्मीलन्ति निमीलन्ति ।".... (अथर्ववेद) भावार्थ-जिस राजा के राज्य में शयन अवस्था में या जागृत अवस्था में ऐसा प्रतीत हो कि देवमन्दिर काँपते हैं, तो देखने वालों को कोई दुःख अवश्य होगा और यह बात उस देश के राजा के लिये भी अच्छी नहीं, अर्थात् राजा को भी कष्ट होगा। इस तरह देवता की मूत्ति यदि हँसती, रोती-रुदन करती, नाचतीनृत्य करती, अङ्गहीन होती, नयन-नेत्र-आँखों को खोलती या बन्द करती हुई किसी को दृष्टिगोचर हो तो समझना चाहिये कि रिपु-शत्रु की ओर से कोई कष्ट-संकट अवश्य ही होगा। इस प्रकार के कथन से भी ईश्वर की साकारता और मूत्ति की प्राचीनता सिद्ध होती है। मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१३७
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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