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. यहाँ पर भी ईश्वर की साकारता दर्शायी है, क्योंकि सिर-मस्तक के बिना जटायें नहीं हो सकतीं।
(७) एषोह देवः प्रदिशोऽनुसर्वाः पूर्वोहजातः स उ
गर्भे अंतः। स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यजनास्तिष्ठति
सर्वतो मुखः। [यजुर्वेद अध्याय० ३२]
भावार्थ--यह जो पूर्वोक्त ईश्वर सब ही दिशा-विदिशाओं में अनेक रूप धारण करके रहा हुआ है, वही विश्व के प्रारम्भ में हिरण्यगर्भ रूप से उत्पन्न हुआ
और वही गर्भ के भीतर आया और वही पैदा हुआ एवं वही पुनः उत्पन्न हुआ; जो कि सबके अन्तःकरण . में रहा हुआ है तथा जो नाना रूप धारण करके सभी
ओर मुखों वाला हो रहा है ।
इस कथन से ईश्वर का देहधारी होना स्पष्ट हो जाता है।
(८) आयो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूषि कृणुसे
पुरूणि । [अथर्ववेद ५।१।११२]
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१३५