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देखने वाले इन्द्र रूप या विराट रूप सेवन में समर्थ पर्जन्य (मेघ) रूप या वरुण रूप रुद्र के लिये नमस्कार हो
और इस रुद्रदेव के जो अनुचर देवता हैं उनको भी मैं नमस्कार करता हूँ।
इससे भी ईश्वर की साकारता की ही सिद्धि होती है।
(५) प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयोराPाम । याश्च ते हस्त इषवः, पराता भगवो वपः॥ .
[यजुर्वेद, अध्याय १६, मन्त्र ६]
भावार्थ-हे षडैश्वर्य सम्पन्न ! भगवन् ! आप अपने धनुष की दोनों कोटियों में स्थित ज्या (धनुष की डोरी) को दूर करो अर्थात् उतार लो और आपके हाथ में जो बाण हैं उनको भी दूर कर दो और हमारे लिये सौम्य स्वरूप हो जानो।
इससे भी ईश्वर की साकारता सिद्ध होती है ।
(६) "नमः कपद्दिने च ।"
[यजुर्वेद अध्याय १६, मन्त्र २६] भावार्थ-कपर्दी अर्थात् जटाजूटधारी ईश्वर को नमस्कार हो।
मूति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१३४