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इससे यह सिद्ध होता है कि जिनचैत्य-जिनमन्दिरजिनालय तथा जिनमूत्ति-जिनप्रतिमा-जिनबिम्ब इन सबकी वन्दनीयता एवं पूजनीयता प्रागमशास्त्रों के प्रमाणों से तथा अन्य भी ग्रन्थों के प्रमाणों से सिद्ध ही है।
जैसे जैनधर्म में जिनेश्वरदेव के साकार और निराकार दोनों स्वरूप बताये हैं, वैसे जैनेतरों के वेद ग्रन्थों में भी निराकार ईश्वर के साकार रूप होने का वर्णन है । मैं यहाँ वेदों के प्रमाणों से निराकार ईश्वर के साकार स्वरूप के साथ-साथ 'मूत्तिपूजा' का भी दिग्दर्शन कराता हूँ
(१) यजुर्वेद के प्रथम सूत्र का प्रथम मन्त्र है कि
सहस्रशीर्षा पुरुषः, सहस्राक्षः सहस्रपाद । स भूमि सर्वतः स्पृत्वा-त्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥
[यजुर्वेदे प्रोक्तम्] भावार्थ-इस प्रकार विराट रूपधारी ईश्वर के अनेक मस्तक हैं, अनेक आँखें हैं और अनेक पैर हैं। ऐसा विराट रूपधारी ईश्वर सभी ओर से पृथ्वी को स्पर्श करता हुआ विशेष स्वरूप से दश अंगुल के बीच में रहता है अर्थात् नाभि से अन्तःकरण-हृदय तक रहता है ।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१३२