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पुष्प-फूल आदि से पूजा तथा स्तुति-स्तवनादि गुणगान स्वरूप अनुष्ठान सर्व विरति रूप भावस्तव के कारण होने से द्रव्यस्तव अर्थात् द्रव्यपूजा है, जो भगवान को भी अभिप्रेत-अनुमत इष्ट है ।
(३२) चौदह पूर्वधर श्रुतकेवली, श्री भद्रबाहु स्वामी महाराज ने 'श्री आवश्यकसूत्र' में कहा है कि
अंतेउर चेइयघरं कारियं पभावईए ण्हातानि । संझं अच्चेइ, अन्नया देवी णच्चइ रायवीणा वायेई ॥
भावार्थ-प्रभावती रानी ने अपने अन्तःपुर में जिनगृह यानी जिनमन्दिर बनवाया। वह स्नान करके प्रभात, मध्याह्न और सायंकाल तीन बार अपने गृहस्थित जिनमन्दिर में अर्चा-पूजा करती थी। एक दिन रानी भगवान के सामने नृत्य करतो है, इतना ही नहीं किन्तु साथ में खुद उदयन राजा भी वीणा बजाता है ।
(३३) उपदेशमाला ग्रन्थ में श्री धर्मदासगरिण महाराज ने तो यहाँ तक कहा है कि
वंदइ उभप्रो कालंपि, चेइयाइं थइथुई परमो । जिणवर-पडिमा-घर, धूप-पुप्फ-गंधच्चण ज्जुत्तो।
[उपदेशमाला श्लोक-२३०]
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१२६