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दीक्षित शिष्यरत्न और अवधिज्ञान को धारण करने वाले श्री धर्मदासगणीकृत 'श्री उपदेशमाला' नामक ग्रन्थ में कहा है कि
निकखमण नाण निव्वाण ,
जम्म भूमीउ वंदई जिणारणं । भावार्थ-जिस भूमि से तीर्थंकर भगवान ने जन्म लिया हो, दीक्षा ली हो, केवलज्ञान पाया हो एवं निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया हो, ऐसे उस पवित्र कल्याणक भूमि की वन्दना-स्पर्शना करनी चाहिये ।
[श्री उपदेशमाला-श्लोक-२३६] (३१) १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता श्रीमद् हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराज ने 'श्री पंचाशक' नामक ग्रन्थ में ' कहा है कि
जिणभवण-बिबठावरण-जत्ता-पूजाइ सुत्त प्रो विहिणा। दव्वत्थरो त्ति नेयं, भावत्थय - कारणत्तेण ॥
[श्री पंचाशक शास्त्र ६-३]
भावार्थ-शास्त्रोक्त विधि युक्त किये हुए जिनमन्दिरनिर्माण, जिनबिम्ब निर्माण, जिनमुत्ति-जिनप्रतिमा की जिनमन्दिर में प्रतिष्ठा, अष्टाह्निक महोत्सव रूप यात्रा,
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१२५