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उमास्वाति महाराज 'तत्त्वार्थसूत्र' के स्वोपज्ञभाष्य गत 'सबन्धकारिका' में कहते हैं कि
अभ्यर्चनादहतां मनःप्रसादस्ततः समाधिश्च । तस्मादपि निःश्रेयसमतो हि तत् पूजनं न्याय्यम् ॥
भावार्थ-श्री अरिहन्त भगवन्त की अभ्यर्चना यानी उपासना करने से मन की प्रसन्नता रहती है, मन के प्रसाद से समाधि रहती है और समाधि से मोक्ष प्राप्त होता है।
(२६) 'व्यवहारसूत्र' नामक ग्रंथ में जिनमुत्तिजिनप्रतिमा के समक्ष भी पाप की आलोचना करने के लिये कहा है कि
जत्येव सम्मचियाइ चेइयाई पाणिज्जा । कप्पसेसस्स संतिए आलोइत्तए वा ॥
भावार्थ-जहाँ तक प्राचार्यादि बहुश्रुत गीतार्थ पुरुषों का संयोग न मिले तो यावत् 'चेइया' यानी जिनमूतिजिनप्रतिमा के सम्मुख जाकर आलोचना यानी किये हुए पाप को प्रगट करना चाहिये । (३०) श्रमण भगवान महावीरस्वामी के हस्त
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१२४