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भावार्थ-स्तवन, स्तोत्र और स्तुति इत्यादि से युक्त होकर श्रावक तीन काल जिनेश्वर भगवान को प्रतिमामूर्ति की पुष्प, धूप, गन्ध अर्चनादि से पूजन करे ।
(३४) श्री आवश्यकसूत्र में कहा है कितत्तीय पुरिमेताल, वग्गुर-इसारण अच्चए पडिमं । मल्लिजिणाययरण पडिमा, अन्नाए वंसि बहुगोट्ठी ॥
भावार्थ-वग्गुर नामक श्रावक ने पुरिमताल नगर में श्री मल्लिनाथ भगवान का जिनमन्दिर बनवाकर, पूर्ण परिवार समेत जिनपूजा की।
(३५) श्री ठाणांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में श्री 'नन्दीश्वर द्वीप में ५२ जिनमन्दिरों का अधिकार सूचित है। . (३६) श्री भगवतीसूत्र के दसवें शतक के पाँचवें
उद्देश में श्रमण भगवान महावीर परमात्मा श्री गौतम स्वामी गणधर को कहते हैं कि असुरेन्द्र की चमरचंचा नामक राजधानी में, सुधर्मा सभा में चैत्यस्तम्भ में गोलाकार डिब्बों में जिनेश्वर भगवन्तों की बहुत सी दाढ़ाएँ रही हुई हैं, जो असुरेन्द्र, चमरेन्द्र तथा अन्य देव-देवियों को चन्दनादिक से अर्चन-पूजन करने योग्य हैं, वन्दननमस्कार करने लायक हैं, वस्त्र वगैरह से सत्कार करने
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१२७