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________________ करके उसकी शुद्धि के लिए आलोयणा लेना चाहे तो उसको संयम-पतित बहुत आगम का ज्ञाता श्रावक नहीं मिले तो सुहिताचार्य प्रतिष्ठित चैत्य (जिनमूत्ति-प्रतिमा) के पास आलोयणा यावत् प्रायश्चित्त लेना कल्पे। . - [श्री व्यवहारसूत्र मूल पाठ १ उद्देश] (८) "तत्थरणं बहवे भवणवइ-वारणमंतरजोइसियवेमारिणया देवा चाउम्मासिय पडिवएसु संवच्छरिएसु वा अन्नेसु य बहुसु जिणजम्मरण-निक्खमरण-नाणुपत्तिपरिनिव्वाणमाइसु देवकज्जेसु य देवसमुदएसु य देवसमितिसु य देवसमवाएसु य देवपनोयरणेसु य एगतम्रो सहिता समुवगता अट्ठाहियारूवाो महामहिमानो करेमारणा पालेमाणा सुहं सुहेण विहरंति ।" अर्थ-नंदीश्वर द्वीप में रहे हुए जिनचैत्य-मन्दिरों में भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक एवं चार निकाय के देव कात्तिकी आदि अट्ठाइयों में, पर्युषण महापर्व के दिवसों में, अन्य श्री जिनेश्वरों के जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्षकल्याणक दिवसों में देवकार्य के लिये इकट्ठ होते हैं और अतिशय आनन्दित तथा क्रीड़ापरायण होकर के अष्टाह्निका महोत्सव करते हुए सुखपूर्वक विचरण करते हैं । [श्री जीवाभिगमसूत्र मूल पाठ ३ प्रतिपत्ति २ उद्देश] मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-११७
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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