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प्रतिमा और उनके श्रमणों को वन्दन-नमन करना कल्पता है।"
__ [श्री उपासकदशाङ्गसूत्र मूलपाठ—प्रानन्दश्रावक अध्ययन] .. (६) "अंबडस्सरणं णो कप्पई अन्नउत्थिया वा, अण्णउत्थियदेवयाणि वा, अण्णउत्थियपरिग्गहियारिग वा, चेइयाई वंदित्तए वा, रणमंसित्तए वा, जाव पज्जुवासित्तए णण्णत्थ अरिहंते अरिहंतचेईयाणि वा।"
अर्थ-अंबड नामक परिव्राजक को नहीं कल्पे अरिहन्त और अरिहन्त मूर्ति-प्रतिमा बिना अन्य मत वालों के देव, अन्य मती गृहीत मूति-प्रतिमाएँ और अन्य मत के श्रमणों का वन्दन करना, नमस्कार करना यावत् पूजा-सेवा करना। अर्थात् अन्य मत को छोड़ अरिहंत और अरिहंत की मूर्ति-प्रतिमा स्तवना, पूजा तथा वन्दन करना कल्पे ।”
[श्री उववाइसूत्र मूल पाठ अम्बडाधिकार (७) "नो चेव रणं समणोवासगं पच्छाकडं बहुस्सुयं वज्जागमं पासेज्जा; जत्थेव सम्मं भावियाईं चेईयाई पासेज्जा; कप्पई से तस्संतिए आलोईए वा जाव पडिवज्जित्तए वा।" अर्थ-जो श्रमण-साधु अयोग्य स्थान का आचरण
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-११६