SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने जिनमत्ति-प्रतिमा की पूजा की थी वैसे द्रौपदी ने भी धूपोत्क्षेपण पर्यन्त पूजा की। बाद में बायाँ गोड़ा ऊंचा और दायाँ गोड़ा जमीन पर स्थापन करके तीन बार अपना सिर-मस्तक नमाकर 'नमुत्थुणं अरिहंतारणं भगवन्ताणं०' के पाठ से स्तवन, वन्दन (नमस्कार) किया। पश्चाद् द्रौपदी राजकन्या जिनघर यानी जिनचैत्य-मन्दिर से बाहर निकल करके वापस निज अंतेउर यानी अपने घर में आई। [श्री ज्ञातासूत्र मूल पाठ १६ वा अध्ययन] (५) "रणो खलु मे भंते ! कप्पई अज्जप्पभिई अन्नउत्थिए वा, अन्नउत्थियदेवयाणि वा, अन्नउत्थियपरिगहियारिण अरिहंतचेईयारिण वा वंदित्तए वा णमंसित्तए वा पुग्वि प्रणालवित्तेणं पालवित्तए वा संलवित्तए वा ।" अर्थ-हे भगवन् ! आज से मुझे नहीं कल्पे अन्य तीथियों के देव तथा अन्य तीथियों की ग्रहण की हुई मूर्ति-प्रतिमा व अन्यतीथिक श्रमणों को वन्दननमस्कार करना। इस प्रकार अन्य तीथियों के बिना बुलाए उनके साथ एक या अनेक बार बोलना भी नहीं कल्पे। अन्यमति के देव और अन्यमति द्वारा ग्रहण की हुई मूर्ति-प्रतिमा के बिना अरिहन्तदेव उनकी मूत्ति मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता--११५
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy