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________________ करने से सम्यग्दर्शनादिक आत्मगुणों की प्राप्ति होती है और कर्मक्षय की सिद्धि होती है। ऐसा वर्णन करते हुए समर्थ ऐसे १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य भगवान श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज आदि सूरिपुङ्गव तथा उनसे भी पूर्व के महान् पूर्वाचार्य महर्षि भी कहते हैं कि चैत्यवन्दनतः सम्यक् , शुभो भावः प्रजायते । तस्मात् कर्मक्षयः सर्वे, ततः कल्याणमश्नुते ।। अर्थ-चैत्य अर्थात् जिनमन्दिर या जिनमुत्ति-जिनबिम्ब-जिनप्रतिमा को सम्यक् रीति से वन्दन करने से प्रकृष्ट शुभ भाव उत्पन्न होता है। शुभ भाव पैदा होने से कर्म का क्षय होता है और कर्म का क्षय होने से कल्याण की प्राप्ति होती है । पूर्व के पूर्वधर महर्षि श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी म., दश पूर्वधर श्री उमास्वातिजी म. तथा चौदह पूर्वधर श्री भद्रबाहु स्वामीजी म. आदि अनेक सूरिभगवन्तों ने भी महाभाष्य, पूजा-प्रकरण, आवश्यकनियुक्ति आदि महाशास्त्रों में ऐसा ही फरमाया है। इतना ही नहीं किन्तु मूल आवश्यक सूत्रकार गणधर भगवन्त श्रुतकेवली श्री सुधर्मास्वामोजी म. ने कायोत्सर्ग, आवश्यक तथा उसके आलावों में भी उपर्युक्त स्पष्ट शब्दों में कहा है । मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१०८
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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