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कालधर्म पा जाता है तब भी उसके मृत देह को भी सचित्त जल से ही स्नान कराया जाता है। इसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। कारण कि इसमें श्री जिनेश्वर-तीर्थंकर भगवान की आज्ञा का पालन होने से धर्म ही है।
इस प्रकार के नियमानुसार जल को छानकर, उस परिमित जल में दूध इत्यादि द्रव्यों को मिलाकर पंचामृत बना लेने से वह अचित्त हो जाता है। उस पंचामृत जल से जिनमूत्ति-प्रतिमाजी को स्नान कराने के बाद अल्प सादा जल से न्हवन करा कर स्वच्छ अंग लूसणां रूप वस्त्रों से पोंछकर एकदम निर्मल किया जाता है।
___ इस तरह प्रभु की आज्ञा के पालन के साथ प्रमाद का भी अभाव होने से हिंसा का अभाव है ।
(५) प्रभु के दर्शन, वन्दन और पूजन के प्रसंग पर विविध प्रकार के फल लाकर प्रभु के सम्मुख एक पट्ट पर रखकर पूजा की जाती है। इन फलों को भी काटना, छीलना और विदारना इत्यादिक से पीड़ा नहीं पहुँचाई जाती है। इसलिये प्रभु की पूजा में हिंसा को अवकाश नहीं है।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१०२