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जिनागमशास्त्रों में भावहिंसा का कारण द्रव्यहिंसा को माना है। विषय और कषाय के निमित्त से होने वाली वह हिंसा है।
प्रभु की पूजा-पूजन में जल, चन्दन और पुष्पादि के समय होने वाली हिंसा भावहिंसा का कारण नहीं हो सकती। इसलिये अनुबन्ध हिंसा नहीं होती है ।
अतः धर्मीजीवों-धर्मात्माओं को प्रभु की पूजा भावोल्लासपूर्वक अवश्य करनी चाहिये।
देवलोकवासी इन्द्र तथा देवी-देवता भी प्रभु की तथा उनकी मूत्ति-प्रतिमा की अनुपम भक्ति करते ही हैं।
(१) श्री तीर्थंकर परमात्मा के च्यवनादि पाँचों कल्याणकों में सम्यग्दृष्टिवन्त देव-देवियाँ श्री तीर्थंकर प्रभु की अनुपम भक्ति निमित्त सचित्त पुष्प-फूलों की वृष्टि करते हैं, प्रभु के पारणे आदि प्रसंग पर भी पुष्पवृष्टि करते हैं।
(२) प्रभु के दिव्य समवसरण में भी देव जल में या स्थल में उत्पन्न होने वाले सचित्त पुष्प-फूलों की प्रभु के घुटनों तक वृष्टि करते हैं। प्रभु के अतिशय के कारण उन पुष्प-फूलों की किलामना नहीं होती है ।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-१००