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स्वयं भवसिन्धु तैरने के साथ अन्य को भी भवसिन्धु तिराने में निमित्त बनूंगा, इत्यादि ।
हिंसा के नाम पर प्रभु की पूजा-पूजन का निषेध करने वाले शंका करते हैं कि
(१) शंका - जल, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, फ़ल इत्यादि सचित्त द्रव्यों से प्रभु की पूजा वा पूजन करने में हिंसा है । इसलिये हिंसा में धर्म नहीं होने से जिनमूर्ति को मानना और उसकी पूजा-अर्चनादि भी करना उचित नहीं है ।
समाधान - संसारवर्ती जीवों-आत्माओं को इस प्रकार की हिंसा तो प्रायः कदम-कदम पर लगती ही है । इसलिये ज्ञानी महापुरुषों ने कहा है कि 'विषय और कषायादिक की प्रवृत्ति करते हुए अन्य जीवों को दुःखहानि होवे उसी का नाम हिंसा है ।'
हिंसा के दो प्रकार हैं- द्रव्यहिंसा और भावहिंसा । द्रव्यहिंसा में होने वाली स्थावर जीवों की हिंसा को भावहिंसा नहीं कह सकते हैं । कारण कि वह आत्मगुणों की वृद्धि रूप भावदया का कारण है और भावदया तो मोक्ष का ही कारण है ।
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - ६६
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