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दायक शुभ करणी है। सुपात्रदान, स्वामीवात्सल्य और धर्मस्थान के निर्माण, जिनमूर्तिपूजा-जिनप्रतिमापूजन इत्यादि शुभ प्रवृत्तियों में आरम्भ-समारम्भ का सामान्य दोष होने पर भी आत्मा के अध्यवसाय शुभ रहते हैं। इसलिये वहाँ पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध पड़ता है, इतना ही नहीं किन्तु कर्मनिर्जरा का भी जीव को अपूर्व लाभ मिलता है।
श्री जिनेश्वर भगवान की यथाशक्ति सेवा-भक्ति करना, यह मेरा परम कर्त्तव्य ही है। प्रभु की प्रशान्त मुद्रा को देखकर ऐसी शुभ भावना अन्तःकरण में उत्पन्न होती है कि जैसे मेरुपर्वत पर प्रभु को ले जाकर इन्द्रों आदि ने अभिषेक किया, वैसे मैं भी उत्तम अभिषेक इत्यादि का अनुपम लाभ लूँ, अष्टप्रकारी पूजा करूँ ।
धर्मी जीव-धर्मात्मा परमात्मा की जल, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, फल एवं नैवेद्य आदि से पूजा करते हैं, बहुमूल्य आभूषण चढ़ाते हैं। इतना ही नहीं किन्तु इनकी अनुपम भक्ति में यथाशक्ति अपने धन का भी सद्व्यय करते हैं और अपने अन्तःकरण में सोचते हैं कि ऐसे वीतराग भगवान की सेवा-भक्ति करूगा तो मैं
त्तिकी सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-६८