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(१४) सुप्रसिद्ध नागार्जुन जोगी को कहीं भी स्वर्ग-सिद्धि प्राप्त नहीं हुई। अन्त में प्राचार्य श्री पादलित सूरीश्वरजी महाराज के वचन से श्री पार्श्वनाथ भगवान को मूत्ति के सामने श्रद्धापूर्वक एकाग्रता करने से वह स्वर्गसिद्धि प्राप्त हुई। इस कारण से वह योगी सम्यक्त्ववंत श्रावक बना और गुरु श्री पादलिप्ताचार्य महाराज की कीत्ति के लिये श्री शत्रुजय महातीर्थ की तलहटी में पादलिप्तपुर (अभी का पालीताणा नगर) बसाया। ऐसा वर्णन श्री पादलिप्त चरित्र ग्रन्थ में आता है।
(१५) वीतराग विभु की द्रव्यपूजा और भावपूजा करने से भव का भ्रमण सर्वथा दूर होता है और मोक्ष के शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है ।
इसके समर्थन में चौदह पूर्वधर श्री भद्रबाहुस्वामीजी महाराज ने 'श्री आवश्यक नियुक्ति' में कहा है किअकसिणपवत्तमाणं ,
__ विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणु - करणे,
दव्वत्थए कूवदिळेंतो ॥१॥
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-६६