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ने जाति-स्मरण ज्ञान प्राप्त किया और प्रार्यदेश में आकर वैराग्य दशा में मग्न-लीन हुआ ।
(७) कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. श्री ने 'योगशास्त्र' में कहा है कि श्री श्रेणिक महाराजा ने श्रो जिनेश्वरदेव की मूत्ति-प्रतिमा को सम्यक् आराधना से 'तीर्थकर गोत्र' बाँधा था ।
(८) समुद्र में जिनमूत्ति-प्रतिमा की प्राकृतिआकार वाली मछलियों को देखकर समुद्र में रही हुई अनेक भव्य मछलियों को जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त होता है तथा वे बारह व्रत धारण कर सम्यक्त्वयुक्त आठवें सहस्रार देवलोक में जाती हैं। __ ऐसा वर्णन 'श्री द्वीपसागरपन्नत्ति' में और 'श्री आवश्यक सूत्र' की वृत्ति में भी आता है ।।
(6) जिनमन्दिर - जिनचैत्य - जिनप्रासाद - जिनालय अर्थात् जैनदेरासर बनाने वाला भव्यात्मा-भव्यजीव मृत्यु पाकर बारहवें अच्युत देवलोक में जाता है। ऐसा वर्णन 'श्री महानिशीथ' सूत्र में आता है ।
(१०) श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा पुण्य का अनुबन्ध कराने वाली होती है तथा निर्जरा रूप फल भी
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-६४