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________________ प्रयोग किया । इससे कृष्ण महाराजा की सारी सेना जरावस्था को पा गई । उसी समय वहाँ पर रहे हुए श्री नेमिकुमार की प्रेरणा से श्रीकृष्ण महाराजा ने अम (तेला) का तप किया । तप के प्रभाव से श्री धरणेन्द्र ने आकर श्री पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति प्रतिमा दी, जो पूर्व चौबीसी के नवमे श्री दामोदर तीर्थंकर के समय अषाढ़ी श्रावक ने बनाई थी । इस मूर्ति - प्रतिमा के स्नान - पक्षाल के जल से जरासंध की जराविद्या दूर हो गई थी । पुनः सैन्य सज्ज हो गया । संग्राम में श्रीकृष्ण महाराजा की जीत हुई । अति हर्ष में आकर खुद वासुदेव . ने अपने मुख से अपना शंख बजाया और यही जिनमूर्ति 'श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ' नाम से प्रसिद्ध हुई । आज भी शंखेश्वरतीर्थ में यही मूर्ति श्री शंखेश्वर पार्श्व - नाथ विश्वभर में सुविख्यात है और अतिप्राचीन, महाप्रभावक और महाचमत्कारिक है । (४) 'आवश्यक निर्युक्ति' नामक ग्रन्थ में जिनमूर्ति के भावपूर्वक दर्शन करने के सम्बन्ध में कहा है कि श्रमण भगवान महावीर परमात्मा ने श्री गौतम स्वामी महाराज की शंका का निवारण करने के लिये कहा कि 'जो भव्यात्मा अपनी आत्मलब्धि से श्री अष्टापद तीर्थ मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - ९२
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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