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आलम्बन रूप जिनबिम्ब और जिनागम अद्वितीय हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं। देवाधिदेव श्री जिनेश्वर भगवान की मूत्तिप्रतिमा के अनुपम दर्शन-अर्चनादिक से दर्शनविशुद्धि अवश्य होती है । इतना ही नहीं किन्तु साथ-साथ उनके गुणों का भी चिन्तन-मनन आसानी से होता है। प्रात्मा साकार उपासना द्वारा ही निराकार उपासना की अधिकारिणी हो सकती है। जैसे स्टीमर-जहाज चलाने वाले का लक्ष्य ध्र व कांटे पर लगा रहता है तो वह स्टीमरजहाज जल्दी किनारे पहुँच जाता है, वैसे इधर भी जिनमूत्ति जिनप्रतिमा के आलम्बन से उपासक मानव का लक्ष्य अपनी आत्मा के वीतरागी ऐसे जिनेश्वरदेव के स्वरूप पर लगा रहता है तो वह आत्मा अवश्य वीतरागी बनती है। अर्थात् प्रात्मा सगुण उपासना के आलम्बन से ही निर्गुण उपासना की उत्तम भूमिका तक पहुँचती है। ___ अपने इष्ट देवाधिदेव जिनेश्वर परमात्मा की मूर्तिप्रतिमा का दर्शन, वन्दन और पूजन करना यही सगुण उपासना है । यों करते-करते ही अन्त में अपनी आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में एकलीन-एकतान बन जाती है ।
__ जिस समय ध्याता, ध्येय और ध्यान ये तीनों एकरूप हो जाते हैं; ध्याता अपनी आत्मा है, ध्यान परमात्मा का
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मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-८६