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प्रभुचरणकमलं भूतलनमितशिरसा ववन्दे । ततश्चेन्द्रविमानमिव शोभासम्पन्नं जिनमन्दिर निर्माप्य प्रभुप्रदशितेन यथा धर्मारम्भं प्रारेभे।
* हिन्दी अनुवाद-सर्वज्ञविभु श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र के. आदेश को प्राप्त करके चक्रवर्ती भरत ने सर्वसुरासुरेन्द्रादि देवों से पूजित प्रभु के चरण-कमलों में श्रद्धापूर्वक झुक कर वन्दन किया। तदनन्तर प्रभु के बताये हुए सद्धर्म के अनुसार आचरण करते हुए देवराज इन्द्र के विमान के समान शोभासम्पन्न जिनमन्दिर का निर्माण करवाया तथा धर्माराधन प्रारम्भ कर दिया ॥ ५५ ॥
। मूलश्लोकः
महाहः सद्रव्यैर्धवलितदिगन्तै - मणिगणैः , व्यधादादीश्वरशस्य सुरगिरिनिभं मन्दिरमहो । ततो भव्यां मूत्ति विगतगगनाभोगविमलां , स्पृशन्तीं स्वर्लोकं प्रवरमणिरत्नैरगरिणतः ॥ ५६ ॥
+ संस्कृतभावार्थः-प्रथमं तावत् श्रीभरतचक्रवत्तिना प्रथमतीर्थङ्करस्य श्रीऋषभदेवस्य भगवतः निज किरणजालर्धवलीकृत - दिदिगन्तैर्बहुमूल्य रत्ननिकरै - गगनचुम्बि
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