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यावत् जिनेश्वरा अपि लोकोपकाराय विहारप्रतिबोधनादिकमुपयोगपूर्वकं कुर्वन्ति, तत्र न भवति हिंसा । सदुपयोगस्तावद् धर्मजन को न तु पापाय ॥ ४२ ।।
* हिन्दी अनुवाद-श्री वीतरागविभु की द्रव्यमयी पूजा में अल्पमात्र में उपयोगपूर्वक शुद्ध जल, चन्दन, पुष्प, धूप, दीपक, अक्षत, नैवेद्य तथा फल इत्यादिक का उपयोग होता है। सांसारिक गृहकार्यों में तो अविवेक असावधानीपूर्वक विपुलमात्रा में तत्-तत् द्रव्यों का अपव्यय होता है। उस पर पूजाविरोधी ध्यान नहीं देते अपितु मत्तिपूजा को निन्दा करने में कटिबद्ध दिखाई पड़ते हैं वह समुचित नहीं है। वस्तुत: प्रमादसहित पाचरण हिंसा है। आयुष्यकर्म के शेष रहने पर वीतराग श्रीजिनेश्वरदेव भी विवेकपूर्वक विहार-नीहार प्रबोधन
आदि लोकोपकार के लिए करते हैं। अतः उपयोगशून्य विवेक रहित प्रवृत्ति ही हिंसा की जननी है, सदुपयोगविवेकपूर्वक प्रयोग धर्मजनक है ।। ४२ ।।
[ ४३ ] - मूलश्लोकःसपर्ययं भर्तुः परिणति-विशेषा सुमनसः , विशुद्धायां तस्यां लुठति करमध्ये शिवसुखम् । विशुद्धा पूजेयं प्रथमशिवपतिनिगदिता , विधिज्ञा अभ्यासं किमु न विदधीरन् शिवकृते ॥ ४३ ॥
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