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तत्त्वशोधकैश्च योगिभिरपि सेवितो वरिणतरश्चायं पन्थाः । इति सर्वं परिशील्य निर्मलमनोभिः श्रेष्ठैः मनुष्यः सर्वदा श्रीजिनेश्वरदेवस्य दर्शन-पूजनादिकं द्रव्येण भावेन च विधेयमिति ।। ७ ।। ___ * हिन्दी अनुवाद-वीतरागविभु श्रीजिनेश्वरदेव की भव्य मूर्ति-प्रतिमा के दर्शन-पूजनादि के समय देवाधिदेव वीतराग विभु की स्तुति, प्रार्थना, स्तवन और गुणगानादि करना भावपूजन तथा भावधर्म भी माना जाता है। यह कथन नितान्त सत्य है-सन्देह का यहाँ स्थान नहीं है। क्योंकि पवित्र चरित्र के धनी, परमात्मनिष्ठ, महर्षि, मुनियोगी एवं मनीषियों के द्वारा सेवित, अनुभूत तथा वरिणत है। इसका सम्यक् प्रकार से अनुशीलन करके निर्मलचित्त भक्तों को नित्य जिनमूर्तिपूजा द्रव्य तथा भाव सहित अवश्य करनी चाहिए ।। ७ ।।
[ ८ ] [ मूलश्लोकःसुरम्ये संस्थाने विगतभयसारेऽतिसुखदे , सुमूत्तिः संस्थाप्या विविधविधपूजादिककरैः । भवेत् तस्मान्नित्यं सरससकलं जीवनरसः , इहत्यं सत्सौख्यं मिलति परमं स्वव्ययपदम् ।