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________________ [६] - मूलश्लोकःसुनिक्षेपं धृत्वा जिनचरणबद्धकमनसः , मुदा चैत्ये स्तोत्रे स्तवनपरमे भावभरिताः । सुसंराध्यैतद् भो! व्यपगतमलास्ते त्वतितरां , लभन्ते सज्ज्ञानं चरितमनघं मोक्षमपि च ॥ ६ ॥ + संस्कृतभावार्थः-भावनिक्षेपं मनसि संस्थाप्य ये भक्ताः श्रीजिनचरणकमलयोरास्थां विधाय प्रसन्नेन प्रशान्तेन च चेतसा श्रीचैत्यवन्दनस्तोत्रे प्रभोः स्तवने संसक्ता भवन्ति ते तु निर्मलाः क्रोधादिरहिताः भूत्वा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि प्राप्य मोक्षमपि प्राप्नुवन्ति ।। ६ ॥ * हिन्दी अनुवाद-भावनिक्षेप को अपने मानस में संस्थापित करके जो भक्तजन परमाराध्य श्रीजिनेश्वरदेव के चरणकमलों के प्रति पूर्ण आस्था-श्रद्धा रखते हुए प्रसन्न एवं प्रशान्तचित्त से चैत्यवन्दन एवं प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण-गायन करते हैं, वे निश्चित रूप से क्रोधादि कषायों के दूषण से रहित होकर सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र प्राप्त करके परमपद-मोक्ष को भी प्राप्त करते हैं । * विशेष-चैत्य का अर्थ इस प्रकार कहा है
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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