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सन्देहास्पदमेव । तथापि हे अर्हन् ! भवदीय कृपादृष्टिभिरसौ पदार्थों निश्चप्रचत्वेन अभिलाषिभिः प्राप्यत एव ।। १४७ ।।
* हिन्दी अनुवाद - स्वर्गलोक, भूलोक तथा पाताल - लोक में जो पदार्थ दुर्लभ होता है । अत्यधिक लाभ की अभिलाषा से जहाँ व्यापारीगण भ्रान्त होते रहते हैं । विधिविडम्बनावश वह पदार्थ वे प्राप्त करते हैं या नहीं, इसमें सन्देह रहता है । किन्तु आपकी कृपादृष्टि से वह पदार्थ निश्चित रूप से अभिलाषी गण प्राप्त कर लेते हैं ।। १४७ ।।
[ १४८ ]
→ मूलश्लोक:
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श्रीमज्जिनेश ! तव कीर्तिकला विशाला छद्मस्थजीव इतिवन्नहि वक्त शक्तः । मन्ये तवैव कृपया परया मयैतत् शास्त्रानुसारि लिखितं
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श्रुतिसारगर्भम् ॥ १४८ ॥
अकारणकरुणावरुणालय ! अतीवशुभ्रा
15 संस्कृतभावार्थ :- हे जिनेश्वर ! भवदीया कीर्तिकला-कौमुदी विशाला अगम्या च वर्तते । तस्या वर्णनमिदमित्थमेवेति कोऽपि छद्मस्थो जीवो कथमपि वक्तुं समर्थो नास्ति ।
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