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________________ विरक्तान् असम्पृक्तान् मूढान् जनान् त्रातुं शक्ताः ( समर्थाः ) न भवन्ति ।। १३३ ।। * हिन्दी अनुवाद - इस संसार में दुःख परितापरहित पिता, माता, भ्राता, भगिनी (बहिन ), ईषद् हाससमन्विता भार्या (पत्नी) या भवभ्रामक युवतियाँ आदि कोई भी कभी किसी प्रकार विषयासक्त मूढ़ ( अज्ञानी) पुरुष का आपकी चरणसेवा से विरक्त होने पर त्रारण करने में समर्थ नहीं होते हैं ।। १३३ ।। [ १३४ ] तृणतरुतमालेऽति → मूलश्लोक:यथारण्येऽगण्ये गहने, विशाले वा शाले स्पृशति शशिभाले मृगगणः । प्रहृष्टो हा ! धृष्टः सुतरुतृरणतुष्टो हतधिया, शरैर्व्याधैर्व्याघ्र ग्रंसितपशुजालैः कवलितः ।। १३४ ॥ - G 5 संस्कृतभावार्थ:- यथा प्रगणिततृणैः तमालातिशयेनातिक्रान्ते विशाले शालवृक्षे शशिभाले स्पृशति वनप्रदेशे मृगवृन्दः, सुष्ठुतृणसमूहतुष्टो हतभाग्येन व्याधबाणैः व्याघ्र व आस्वाद्यते कालकवलितो भवति तदा अन्येषां का कथेति विचार्यन्ताम् ।। १३४ ।। --- १६३ -~
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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