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स एव मार्गः सुखदः शान्तिप्रदश्च वर्त्तते । सन्मार्गेण प्रयातव्यं न तून्मार्गेण ।
* हिन्दी अनुवाद-श्रीजिनमत्तिपूजा के सन्दर्भ में स्वयं श्रीआदिनाथ आदि जिनेश्वरदेवों एवं श्रुतकेवली गणधरभगवन्तों ने स्पष्ट रूप से अनेकशः कहा है और लिखा भी है। सर्वसुखदायिनी श्रीजिनेश्वरमूर्तिपूजा के प्रति दुराग्रह-कदाग्रह छोड़कर के उसी श्रद्धा, भक्ति एवं पूर्ण निष्ठा को अवश्य अपनाना चाहिए। मैं तो कहता हूँ कि-जिस निष्कण्टक, अन्तरायरहित मार्ग से सज्जन महापुरुष गये हों उसी मार्ग से चलना चाहिए। वही मार्ग सुखद एवं शान्तिप्रद होता है। वस्तुतः सन्मार्ग से चलना चाहिए, उन्मार्ग से नहीं ।। ११२ ।।
[ ११३ ] 0 मूलश्लोकःविकल्पं दुष्तकं त्यजत खलु किम्पाकफलवत् , श्रुतौ श्रद्धां बध्वा त्रिभुवनगुरोस्तस्य वचने । सपऱ्यां कुर्वन्तु प्रवरजिनभर्तुः प्रतिकृते , विना श्रद्धां कश्चिन्न फलति कृतो यत्ननिकरः ॥ ११३ ॥
+ संस्कृतभावार्थः-किम्पाकफलं दुःखदं भवति, अतः
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